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औलाद की चाह 054

Story Info
उपचार की प्रक्रिया.
2.6k words
3.5
208
00
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Part 55 of the 283 part series

Updated 05/04/2024
Created 04/17/2021
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औलाद की चाह

CHAPTER 6-पांचवा दिन

तैयारी

Update 2

गुरूजी से भेंट​

उसके बाद कोई ख़ास घटना नहीं हुई और करीब एक घंटे बाद हम कार से आश्रम चले गये। कार में बातचीत के दौरान गुरुजी ऐसे बिहेव कर रहे थे जैसे कल रात कुछ हुआ ही ना हो और उन्हें इस बात की रत्ती भर भी शरम नहीं थी की मैंने उनको पूर्ण नग्न होकर एक कमसिन लड़की को चोदते हुए देखा है। बल्कि समीर जिसे मैंने नंदिनी के साथ करीब-करीब रंगे हाथों पकड़ा था वह भी बहुत कैजुअली बिहेव कर रहा था। लेकिन कल रात की घटना की वज़ह से मुझे गुरुजी से नजरें मिलाने में थोड़ी शरम महसूस हो रही थी।

गुरुजी--रश्मि, अब तुम अपने उपचार के आखिरी पड़ाव में पहुँच गयी हो। आराम करो और महायज्ञ के लिए अपने को मानसिक रूप से तैयार करो। लंच के बाद मेरे कमरे में आना फिर मैं विस्तार से बताऊँगा।

"ठीक है गुरुजीl"

मैं अपने कमरे में चली गयी और नाश्ता किया। फिर दवाई ली और नहाने के बाद बेड में लेट गयी। बेड में लेटे हुए सोचने लगी, अब क्या होनेवाला है? गुरुजी ने कहा था महायज्ञ उपचार का आखिरी पड़ाव है। यही सब सोचते हुए ना जाने कब मेरी आँख लग गयी। नींद में मुझे एक मज़ेदार सपना आया। मैं अपने पति राजेश के साथ एक सुंदर पहाड़ी जगह पर छुट्टियाँ बिता रही हूँ। हम दोनों एक दूसरे के ऊपर बर्फ के टुकड़े फेंक रहे थे और तभी मैं बर्फ में फिसल गयी। राजेश ने जल्दी से मुझे पकड़ लिया और मेरा चुंबन लेने लगे तभी!

"खट खट!

किसी ने दरवाज़ा खटखटा दिया। मुझे बड़ी निराशा हुई, इतना अच्छा सपना देख रही थी, ठीक टाइम पर डिस्टर्ब कर दिया। दरवाज़े पर परिमल लंच लेकर आया था।

मैं नींद से सुस्ती महसूस कर रही थी और परिमल से टेबल पर लंच रख देने को कहा क्यूंकी अभी मेरा खाने का मन नहीं था। मैंने ख़्याल किया ठिगना परिमल मुझे घूर रहा है, कुछ पल बाद मुझे समझ आ गया की ऐसा क्यूँ। मैंने जब दरवाज़ा खोला तो नींद से उठी थी और अपने कपड़ों पर ध्यान नहीं दिया। मैं नाइटी पहने हुए थी और अंदर से अंतर्वस्त्र नहीं पहने थे। परिमल की नजरें मेरे निपल्स पर थी। मैं थोड़ी देर और आराम करने के मूड में थी इसलिए उससे जाने को कह दिया। निराश मुँह बनाकर परिमल चला गया। मैं बाथरूम में गयी और शीशे के सामने अपने को देखने लगी।

"हे भगवान!"

मेरे दोनों निपल्स तने हुए थे और नाइटी के कपड़े में उनकी शेप साफ़ दिख रही थी। ये देखकर मैं शरमा गयी और समझ गयी की परिमल घूर क्यूँ रहा था। मैंने अपनी चूचियों के ऊपर नाइटी के कपड़े को खींचा ताकि निपल्स की शेप ना दिखे लेकिन जैसे ही कपड़ा वापस अपनी जगह पर आया, मेरे तने हुए निपल्स फिर से दिखने लगे। वास्तव में मैं ऐसे बहुत सेक्सी और लुभावनी लग रही थी। ये ज़रूर उस सपने की वज़ह से हुआ होगा। बाथरूम से बाहर आते हुए मैं राजेश के चुंबन को याद करके मुस्कुरा रही थी। मैं फिर से बेड में लेट गयी और अपनी जांघों के बीच तकिया दबाकर दुबारा से सपने को याद करने लगी। लेकिन बहुत कोशिश करने पर भी ठीक से सपना याद नहीं आया ना ही दुबारा नींद आई. निराश होकर कुछ देर बाद मैं उठ गयी और लंच किया।

फिर मैंने नयी ब्रा पैंटी के साथ नयी साड़ी, पेटीकोट और ब्लाउज पहन लिए और गुरुजी के कमरे में जाने के लिए तैयार हो गयी थी। तभी किसी ने दरवाज़ा खटखटा दिया। दरवाज़े पर परिमल था।

परिमल--मैडम, अगर आपने लंच कर लिया है तो गुरुजी बुला रहे हैं।

"हाँ।"

उसने मेरी बात काट दी।

परिमल--अरे, आप तो तैयार हो। मैडम, समीर ने पूछा है कि धोने के लिए कुछ है?

"हाँ, लेकिन!"

मेरे कल के कपड़े धोने थे लेकिन मैं परिमल को वह कपड़े देना नहीं चाहती थी क्यूंकी ना सिर्फ़ साड़ी बल्कि ब्लाउज, पेटीकोट और ब्रा पैंटी भी थे।

परिमल--लेकिन क्या मैडम?

मैंने सोचा कुछ बहाना बना देती हूँ ताकि कपड़े इसे ना देने पड़े।

"असल में मैंने पहले ही समीर को धोने के लिए दे दिए थे।"

परिमल--लेकिन मैडम, मैंने तो चेक किया था वहाँ तो सिर्फ़ मंजू के कपड़े हैं।

अब मैं फँस गयी थी, क्या जवाब दूँ?

परिमल--आज तो समीर की जगह वहाँ मैं काम कर रहा हूँ।

मेरा झूठ परिमल ने पकड़ लिया था। पर मुझे कुछ तो कहना ही था।

" अरे हाँ। तुम ठीक कह रहे हो। मैंने आज नहीं दिए, कल दिए थे। मुझे याद नहीं रहा।

परिमल मुस्कुराया और मुझे भी जबरदस्ती मुस्कुराना पड़ा।

परिमल--मैडम, आप मुझे बता दो कहाँ रखे हैं, मैं उठा लूँगा। आपको पुराने कपड़े छूने नहीं पड़ेंगे।

मुझे कुछ जवाब नहीं सूझा और उसकी बात माननी पड़ी।

"धन्यवाद। बाथरूम में रखे हैं, दायीं तरफ।"

परिमल मुस्कुराया और मेरे बाथरूम में चला गया। मैं भी उसके पीछे चली गयी वैसे इसकी ज़रूरत नहीं थी। जो कपड़े मैंने कल गुप्ताजी के घर जाने के लिए पहने हुए थे वह बाथरूम के एक कोने में पड़े हुए थे। परिमल ने फ़र्श से मेरी साड़ी उठाई और अपने दाएँ कंधे में रख ली और मेरा पेटीकोट उठाकर बाएँ कंधे में रख लिया। मैं बाथरूम के दरवाज़े में खड़ी होकर उसे देख रही थी। अब फ़र्श में ब्लाउज के साथ मेरी सफेद ब्रा और पैंटी लिपटे हुए पड़े थे। मुझे बहुत अटपटा महसूस हो रहा था कि अब परिमल उन्हें उठाएगा। परिमल झुका और उन कपड़ों को उठाकर मेरी तरफ़ घूम गया। मैं इसके लिए तैयार नहीं थी और मुझे बहुत इरिटेशन हुई जब मैंने देखा की मेरे अंतर्वस्त्रों को देखकर उसके दाँत बाहर निकल आए हैं। मेरी तरफ़ मुँह करके वह ब्लाउज से लिपटी हुई ब्रा को अलग करने की कोशिश करने लगा।

इतना बदमाश। उसको ये सब मेरे ही सामने करना था।

मैंने देखा मेरी ब्रा का स्ट्रैप ब्लाउज के हुक में फँसा हुआ है । परिमल को ये नहीं दिखा और वह ब्रा को खींचकर अलग करने की कोशिश कर रहा था।

"अरे ।क्या कर रहे हो? हुक टूट जाएगा।"

परिमल ने मुस्कुराते हुए मुझे देखा जबकि मुझे बिल्कुल हँसी नहीं आ रही थी। अब उसने हुक से स्ट्रैप निकाला।

परिमल--मैडम, मुझे पता नहीं चला की आपकी ब्रा ब्लाउज के हुक में फँसी है। आपने सही समय पर बता दिया वरना मैंने ग़लती से आपके ब्लाउज का हुक तोड़ दिया होता।

ऐसा कहते हुए उसने अपने एक हाथ में ब्रा और दूसरे में ब्लाउज पकड़ लिया जैसे कि मुझे दिखा रहा हो की देखो मैंने बिना हुक तोड़े अलग-अलग कर दिए हैं। ब्लाउज से ब्रा अलग करने में मेरी पैंटी फ़र्श में गिर गयी।

परिमल--ओह! सॉरी मैडम।

पैंटी के गिरते ही मैं अपनेआप ही झुक गयी और पैंटी उठाने लगी। मेरी मुड़ी तुड़ी पैंटी फ़र्श से उठाकर उसको देने में बड़ा अजीब लग रहा था। आश्रम आने से पहले कभी किसी मर्द को अपने अंतर्वस्त्र देने की ज़रूरत नहीं पड़ी। अपने घर में मैं अपने अंतर्वस्त्र ख़ुद धोती थी। इसलिए कभी धोबी को देने की ज़रूरत नहीं पड़ी। मैंने तो कभी अपने पति से भी नहीं कहा की अलमारी से मेरी ब्रा पैंटी निकाल कर दे दो। मुझे याद है कि जब मैं आश्रम आई थी तो पहले ही दिन मुझे अपने अंतर्वस्त्र समीर को देने पड़े थे। वह तो फिर भी चलेगा लेकिन इस बौने की हरकतों से मुझे इरिटेशन हो रही थी।

परिमल अब मेरी पैंटी को ग़ौर से देखने लगा। असल में वह एक रस्सी की तरह मुड़कर उलझ गयी थी। नहाने के बाद मैंने उसे सीधा नहीं किया था।

परिमल--मैडम, ये तो घूम गयी है।

मेरे पास इस बेहूदी बात का कोई जवाब नहीं था और मैंने नजरें झुका ली और शरम से अपने होंठ काटने लगी।

परिमल--मैडम, मैं इसको सीधा करता हूँ, नहीं तो ठीक से धुल नहीं पाएगी। आप इनको पकड़ लो।

एक मर्द मुझसे मेरी ब्रा और ब्लाउज को पकड़ने के लिए कह रहा था और ख़ुद मेरी पैंटी को सीधा करना चाहता था। मुझे तो कुछ कहना ही नहीं आया। मैंने अपनी ब्रा और ब्लाउज पकड़ लिए. परिमल दोनों हाथों से मेरी घूमी हुई पैंटी को सीधा करने लगा। वह देखकर मैं शरम से मरी जा रही थी।

मुझे बहुत एंबरेस करके आखिरकार परिमल बाथरूम से बाहर आया।

परिमल--मैडम अब आप गुरुजी के पास जाओ. उन्होंने लंच ले लिया है।

अपने हाथों में मेरे अंतर्वस्त्र पकड़कर दाँत दिखाते हुए परिमल चला गया। उसकी मुस्कुराहट पर इरिटेट होते हुए मैं भी गुरुजी के कमरे की तरफ़ चल दी।

"गुरुजी, मैं आ जाऊँ?"

गुरुजी एक सोफे में बैठे हुए थे और समीर भी वहाँ था।

गुरुजी--आओ रश्मि। मैं तुम्हारा ही इंतज़ार कर रहा था।

मैं अंदर आकर कालीन में बैठ गयी। समीर भी वहीं पर बैठा हुआ था। वह एक कॉपी में कुछ हिसाब लिख रहा था। मैंने गुरुजी को प्रणाम किया और उन्होंने जय लिंगा महाराज कहकर आशीर्वाद दिया।

गुरुजी--रश्मि, मुझे कुछ देर बाद भक्तों से मिलना है इसलिए मैं सीधे काम की बात पर आता हूँ। जैसा की मैंने तुम्हें बताया है कि महायज्ञ तुम्हारे गर्भधारण में आने वाली सभी बाधाओं से मुक्ति का आखिरी उपाय है। ये एक कठिन प्रक्रिया है और इसको पूरा करने में तुम्हें कई चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा। सिर्फ़ तुम्हारी लगन ही तुम्हें पार ले जा सकती है। तुम्हें सिर्फ़ उस वरदानी फल का ध्यान करना है जो महायज्ञ के उपरांत तुम अपने गर्भ में धारण करोगी।

मैं उनकी बातों से मंत्रमुग्ध हो गयी। गुरुजी की ओजस्वी वाणी से मुझे कॉन्फिडेन्स भी आ रहा था। मैंने सर हिलाया।

गुरुजी--महायज्ञ का पाठ किसी भी औरत के लिए कठिन है लेकिन अंत में जो सुखद फल प्राप्त होगा, उसकी इच्छा से तुम अपनेआप को तैयार करो। महायज्ञ में कुछ चरण हैं और हर चरण को पूरा करने के बाद तुम अपने लक्ष्य के करीब आती जाओगी। ये तुम्हारे मन, शरीर और धैर्य की कड़ी परीक्षा होगी। अगर तुम्हें मुझमें और लिंगा महाराज में विश्वास है तो तुम अपनी मंज़िल तक ज़रूर पहुँचोगी।

"गुरुजी, मैं ज़रूर पूरा करूँगी। किसी भी क़ीमत पर मैं माँ बनना।"

मेरी आवाज़ गले में रुंध गयी क्यूंकी संतान ना हो पाने का दुख मेरे मन पर हावी हो गया।

गुरुजी--मैं तुम्हारा दुख समझता हूँ रश्मि। अभी तक तुमने सफलतापूर्वक उपचार की प्रक्रिया पूरी की है और लिंगा महाराज के आशीर्वाद से तुम ज़रूर महायज्ञ को सफलतापूर्वक पूरा करोगी।

गुरुजी कुछ पल के लिए रुके फिर।

गुरुजी--मैं जानता हूँ की तुम्हारी जैसी शादीशुदा औरत के लिए किसी पराए मर्द को अपना बदन छूने देने के लिए राज़ी होना बहुत कठिन है। लेकिन मेरे उपचार का तरीक़ा ऐसा है कि तुम्हें इन चीज़ों को स्वीकार करना ही पड़ेगा। संतान पैदा होना 'यौन अंगों' से सम्बंधित है, है कि नहीं रश्मि? इसलिए मैं उपचार के दौरान उन्हें बायपास कैसे कर सकता हूँ? अगर मुझे तुम्हारे स्खलन की मात्रा ज्ञात नहीं होगी, अगर मुझे ये मालूम नहीं होगा की तुम्हारे योनीमार्ग में कोई रुकावट है या नहीं तो मैं उपचार का अगला चरण कैसे तय कर पाऊँगा?

मैंने एक आज्ञाकारी शिष्य की तरह गुरुजी की बात पर सर हिला दिया।

गुरुजी--इसीलिए मैंने पहले ही दिन तुमसे कहा था कि अपना सारा संकोच और शरम को भूल जाओ और आज जब तुम अपने उपचार के आखिरी पड़ाव पर हो, मैं तुमसे कहूँगा की महायज्ञ के दौरान कोई संकोच, कोई शरम अपने मन में मत रखना।

गुरुजी--मेरा मतलब है कि मानसिक तौर पर किसी भी स्थिति के लिए तैयार रहना। वैसे तो तुमने पिछले कुछ दिनों में उपचार की प्रक्रिया ठीक से पूरी की है लेकिन महायज्ञ में हो सकता है कि तुम्हें और भी ज़्यादा बेशरम बनना पड़े। असल में जो तुम्हारे लिए बेशरम कृत्य है, वह हमारे लिए साधारण कृत्य है। जैसे उदाहरण के लिए कल कुमार के घर में मुझे नग्न होकर काजल के साथ संभोग करते हुए देखकर तुमने ज़रूर मेरे बारे में ग़लत सोचा होगा लेकिन तांत्रिक क्रियाएँ ऐसे ही की जाती हैं, यही विधान है।

स्वाभाविक शरम से मैंने गुरुजी से आँखें मिलने से परहेज किया। मेरे चेहरे की लाली बढ़ने लगी थी।

गुरुजी--जब मैंने अपने गुरु से तांत्रिक दीक्षा ली थी, तब हम पाँच शिष्य थे और उनमें से दो औरतें थीं। उन दिनों पूरी प्रक्रिया के दौरान नग्न रहना ज़रूरी होता था। इसलिए तुम समझ सकती होl

मैंने फिर से गुरुजी से नजरें नहीं मिलाई और मेरी साँसें थोड़ी भारी हो गयी थीं। गुरुजी सीधे मेरी आँखों में देखकर बात कर रहे थे।

गुरुजी--रश्मि, मैं फिर से इस बात पर ज़ोर दूँगा की अपनी शारीरिक स्थिति पर ध्यान देने की बजाय जो प्रक्रिया चल रही है उस पर ध्यान देना। तभी तुम्हें लक्ष्य की प्राप्ति होगी। समझ गयीं?

"जी गुरुजीl"

गुरुजी--जैसा की मैंने तुम्हें पहले भी बताया था महायज्ञ दो रातों तक चलेगा। आज रात 10 बजे से शुरू होगा। कल दिन में तुम आराम करना और कल रात को महायज्ञ का दूसरा चरण होगा। महायज्ञ में क्या-क्या होगा इसके बारे में मैं अभी बात नहीं करूँगा, यज्ञ के दौरान ही तुम्हें पता चलते रहेगा। ठीक है?

मैंने फिर से सर हिला दिया।

गुरुजी--ठीक है फिर। समीर ज़रा देखो की सभी भक्त आ गये हैं या नहीं। वरना मुझे जाना होगा।

समीर--जी गुरुजीl

समीर ने अपनी कॉपी बंद की और कमरे से बाहर चला गया। अब मैं गुरुजी के साथ अकेली थी।

गुरुजी--रश्मि, महायज्ञ और तंत्र दर्शन कोई आज के दिनों के नहीं हैं। ये प्राचीन काल से चले आ रहे हैं और इस प्रक्रिया में भक्तों को अपने शुद्ध रूप यानी की नग्न रूप में रहना होता है। लेकिन आज के दौर में शहरों में रहने वाले स्त्री--पुरुष भी इसका लाभ प्राप्त करने आते हैं, अब आज के समय को देखते हुए हम उन्हें नग्न रूप में पूजा के लिए नहीं कहते बल्कि 'महायज्ञ परिधान' पहनना होता है। एक बात मैं साफ़ बता देना चाहता हूँ की पहले के समय में भक्त और यज्ञ करवाने वाले दोनों को ही नग्न रूप में रहना होता था।

गुरुजी थोड़ा रुके शायद मेरा रिएक्शन देखने के लिए. मैं अंदाज़ा लगाने की कोशिश कर रही थी की मुझे क्या पहनना होगा? मैं गुरुजी से पूछना चाह रही थी की 'महायज्ञ परिधान' होता क्या है? इस परिधान के बारे में अंदाज़ा लगाते हुए मेरा गला सूखने लगा था। गुरुजी ने जैसे मेरे मन की बात जान ली।

गुरुजी--रश्मि, मैं इस बात से सहमत हूँ की 'महायज्ञ परिधान' एक औरत के लिए पर्याप्त नहीं है पर मैं इस बारे में कुछ नहीं कर सकता। लेकिन जैसा की मैंने कई बार कहा है तुम्हारा ध्यान लक्ष्य पर होना चाहिए ना की और बातों पर।

"लेकिन फिर भी गुरुजीl"

गुरुजी--मैं जानता हूँ रश्मि की तुम्हें उत्सुकता हो रही होगी। लेकिन तुम्हारा ध्यान लिंगा महाराज की पूजा पर होना चाहिए. बाक़ी सब मुझ पर छोड़ दो।

ऐसा कहते हुए वह मुस्कुराए और उठने को हुए. सच कहूँ तो उस समय तक मुझे इस 'महायज्ञ परिधान' को लेकर फ़िक्र होने लगी थी।

गुरुजी--अब मुझे जाना है। मुझे उम्मीद है कि तुम्हें गोपाल टेलर को कपड़े की नाप देने में कोई आपत्ति नहीं होगी।

गोपाल टेलर? हे भगवान! मुझे तुरंत याद आया की उसकी दुकान में ब्लाउज की नाप देते समय गोपालजी और उसके भाई मंगल ने मेरे साथ क्या किया था। मेरा मुँह शरम से लाल हो गया।

"लेकिन गुरुजी, क्या मैं कहीं और से!"

गुरुजी--रश्मि, 'महायज्ञ परिधान' एक ख़ास तरह का वस्त्र है जो उच्चकोटि के कपास (कॉटन) से बनता है। ये बाज़ार में नहीं मिलता की तुम गये और खरीद कर ले आए.

गुरुजी खीझ गये। मैं अपने उपचार के आखिरी पड़ाव में गुरुजी को नाराज नहीं करना चाहती थी।

"माफ़ कीजिए गुरुजी. मुझे ये समझ लेना चाहिए था।"

गुरुजी--तुम्हें ये जानकार आश्चर्य होगा की गोपाल टेलर आज ही तुम्हारा परिधान सिल देगा और वह भी रात 10 बजे से पहले। तुम यज्ञ के लिए अपने को मानसिक रूप से तैयार करो और उसका काम उसे करने दो। वह तुम्हारे कमरे में दोपहर 2 बजे आ जाएगा।

मैंने सहमति में सर हिलाया और कालीन से उठ खड़ी हुई. मेरे दिमाग़ में परिधान को लेकर बहुत से प्रश्न थे लेकिन गुरुजी से पूछने की मेरी हिम्मत नहीं हुईl

गुरुजी--अब तुम जाओ!

कहानी जारी रहेगी

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